स्त्रियाँ शोषक एवं पुरुष शोषित

स्त्रियाँ शोषक एवं पुरुष शोषित

     सद्भावी सत्यान्वेषी बन्धुओं ! प्रस्तुत शीर्षक से हो सकता है कि पत्नी प्रधान पति अर्थात् पत्नि-भक्त हिजड़ों को तथा महिलाओं को कष्ट होवे, परन्तु यह कोई कष्ट की बात नहीं होनी चाहिये । हालाँकि स्त्रियों से अधिक कष्ट स्त्रियों में आसक्त स्त्री प्रधान पुरुषों (हिजड़ों) को ही होगी तथा मुझे यह भी लग रहा है कि वे सभी प्रायः इस कटु सत्य बात के लिये स्त्रियों से माफी भी माँगेंगे ही । खैर सत्य सत्य ही होता है । इससे यह अर्थ कदापि नहीं लगाना चाहिये कि मैं स्त्रियों का विरोधी हूँ। बल्कि असलियत यह है कि मैं किसी का विरोधी नहीं हूँ। सत्य का पुजारी एवं यथार्थता के पोषक होने के कारण ही मुझे ऐसी कटु सत्य बातों का प्रयोग करना पड़ता है । आप इसे सूझ-बूझ के साथ समझते हुए पढ़ने की कोशिश करें तो यथार्थता से परिचय आप को भी हो ही जायेगा और यथार्थता जानने के पश्चात् ही यदि आप मुझको कुछ कहें, तो अच्छा होगा । महत्व भी उसी बात का होता है जिसे जानने-समझने के पश्चात् कहा-सुना जाय ।
        सद्भावी सत्यान्वेषी पाठक बन्धुओं ! काम, क्रोध, लोभ, मोह, ममता, माया, वासना सभी प्रकार के कष्टों तथा सभी दुःखों आदि से युक्त रूप साक्षात् मूर्ति स्त्रियाँ होती हैं जिसके सम्पर्क में आने वाले पुरुष को इन अपकारों से युक्त होकर जन्म-जन्मान्तर भुगतना ही होता है, क्योंकि जैसे ही आप माता के गर्भ में शिशुस्थ जीव के रूप में आयें तो  भगवद् सम्बन्ध विच्छेद होकर आप भगवान् से उपलब्ध होने वाले उपलब्धियों से बंचित हो गये । पुनः जब गर्भ से बाहर शारीरिक माता-पिता के सम्पर्क में आये तो ब्रह्म से सम्पर्क भी आपका समाप्त हो गया और ब्रह्म से होने वाले उपलब्धियों से भी आप वंचित हो गये। तत्पश्चात् जैसे ही आप विवाह के द्वारा स्त्री-सम्पर्क में आयेंगे वैसे ही आपका माता-पिता, भाई-बन्धु से भी सम्पर्क टूटने लगता है और उनसे मिलने वाली ममता-प्यार आदि से भी वंचित हो जाना पड़ता है । सोचें तो क्या यह सत्य नहीं है ।
      अन्ततः देखें कि जब आप स्त्री रहित (अविवाहित) थे, तो आप स्वतन्त्र थे । जब जैसे रहने की इच्छा हुई रहे, जब जहाँ जाने की इच्छा हुई गये, जब जो खाने-पीने, जानने-देखने की इच्छा हुई तब वह खाये-पीये, जाने-देखे। अर्थात् स्वच्छन्द जीवन जीते थे । जो कमाते थे, वह आपके लिये पर्याप्त होता रहता था । किसी प्रकार की भी समस्या प्रायः आपके पास नहीं थी, कोई खास कमी भी नहीं थी । कमाते और ठाट से खाते-पीते मस्त पड़े रहते थे । तो बन्धुओं ! थोड़ा भी तो सोचो-समझो । क्योंकि यहाँ पर मैं अपने उन विवाहित बन्धुओं से जानना  चाहता हूँ कि क्या ऐसी बात विवाह के पूर्व नहीं थी ? क्या विवाह के पश्चात् भी आप वैसे ही हैं जैसे कि अभी-अभी ऊपर स्वच्छन्दता वाले जीवन हेतु बताया गया है । क्या आज भी आप खाने-पीने, कहीं आने-जाने, रहने आदि में स्वच्छन्द हैं ? क्या कमी आदि नाम की कोई समस्यायें आपके पास नहीं हैं ? जरा सोच कर आप ही बतायें कि क्या ये उपर्युक्त बातें सही ही नहीं हैं ?
भाव का शोषण
        सद्भावी सत्यान्वेषी बन्धुओं ! यहाँ पर आप सर्व प्रथम स्त्रियों द्वारा हो रहे पुरुषों के शोषण में भाव शोषण को इस पैरा में देखा-जाना-समझा जायेगा । बन्धुओं ! थोड़ा-बहुत आप भी सोचते-समझते हुए निर्णय लेंगे । आँख मूँद कर कुछ बोलने न लगेंगे तो जानेंगे और देखेंगे तथा पायेंगे भी कि जीवन में सबसे सबसे महत्वपूर्ण कोई चीज अगर है तो अपना भाव है । अपने ‘भाव’ से ही आपका महत्व बढ़ता-घटता एवं उत्थान-पतन को प्राप्त होता है । आप अपने भाव से ही संसार को वश में किये तो क्या किये; भगवान् तक को भी भाव से ही वश में किया जाता है । और भगवान् भाव से ही, मात्र केवल भाव से ही वश में बिना किसी हिचकिचाहट के ही हो जाते हैं । अब थोड़ी देर के लिये ‘भाव’ की कीमत तो लगायें, तो पता लगेगा ‘भाव’ अनमोल होता है । क्योंकि जिस भाव के द्वारा भगवान् तक भी वश में आसानी से हो जाता है, खुशी-खुशी वश में हो जाता है । उस भाव की कीमत धरती क्या, पूरे सृष्टि में शारदा-शेष-महेश को भी कह दिया जाय तब भी लाख-कोटि शारदा-शेष-महेश भी ‘भाव’ की कीमत नहीं लगा सकते हैं । आप बन्धुओं जरा भी तो सोचें कि जिस भाव से आप आसानी से भगवान् को वश में कर सकते हैं, इसमें तो कभी भी किसी को सन्देह ही नहीं हो सकता है । आप उसी अनमोल ‘भाव’ को मात्र तुच्छ-क्षणिक वासनात्मक तृप्ति हेतु कितनी आसानी से सभी पापों, सभी अवगुणों एवं सभी कष्टों दुःखों के खान रूपी स्त्री को दे देते हैं; और उसी के वश में होकर उसके नाना समस्याओं के पूरा करने में ही अपने सम्पूर्ण भावों को ही समाप्त कर-करा देते हैं । अपने भावों को स्त्री को समर्पित कर आप मातृ भाव, पितृ भाव, भातृ भाव, समाज भाव से बंचित तो हो ही जाते हैं, और नहीं तो जीव भाव, ब्रह्म भाव और भगवद् भाव से भी बंचित होकर मात्र स्त्री भाव के पीछे-पीछे प्रत्यक्ष मालिक तथा परोक्षः दास के रूप में उस स्त्री के चारों तरफ उसके समस्या पूर्ति में लगे हुए हैं। तुलसी भी अपने भाव को अपनी स्त्री रत्नावली को दे दिये थे, तो उनकी औरत ने ही उनके व्यसनी रूप और निर्लज्जता को धिक्कारा, तो तुलसी को सूझ हुआ और वहाँ तुलसी जो व्यसनी और निर्लज्ज की उपाधि पाने वाला, जब उसी भाव को जो पहले स्त्री को दिया था, अब भगवदवतार रूप श्रीराम जी को दे दिया, तो आज वही तुलसी, तुलसीदास होकर भगवान् का दास बनकर आज पूरे संसार में आदर-सम्मान तथा सन्त-महात्मा माने जा रहे हैं ।
         सद्भावी बन्धुओं ! रत्नाकर डाकू अपने भाव को माता-पिता, पुत्री-पुत्र, स्त्री-परिवार आदि में दिया था, तो डाकू रत्नाकर कहला रहा था । यदि उस रूप में मर जाता तो आज उसका नाम-निशान तक नहीं रहता ।  परन्तु वही रत्नाकर डाकू अपने उसी भाव को ब्रह्म के प्रति समर्पित कर दिया तो वह रत्नाकर डाकू महर्षि-ब्रह्मर्षि बाल्मीकि कहलाते हुए आज भी चारों तरफ हैं । भारत जैसे विशाल देश के प्रधानमन्त्री द्वारा उनकी जयन्ती मनायी जाती है, वह भी कितने हजारों साल बाद कि जिसका ठीक-ठीक पता नहीं है । इसी प्रकार उसी भाव को धु्रव पिता राजा उत्तान पाद को दिया तो दुत्कारा गया, उसी भाव को भगवान् को दिया तो पुचकारा गया । इसी प्रकार प्रहलाद, हनुमान को देख लीजिये कि वही भाव सुग्रीव को दिये थे तो बालि के डर से दर-दर का ठोकर खाते हुए ऋष्यमूक पर्वत पर सुग्रीव के साथ छिपे थे और उसी भाव को राम जी को दिये तो देखें ! कि क्या हो गये ? संकट मोचन होकर पुजा रहे हैं ।
        सद्भावी सत्यान्वेषी पाठक बन्धुओं ! ‘भाव’ का कीमत तो लगाना असम्भव के लिए भी असम्भव ही है । परन्तु भाव के महत्व को भी नहीं आँका जा सकता है । मनुष्य कितना जढ़ी एवं मूढ़ होता है कि इतनी महत्वपूर्ण अनमोल वस्तु पाकर कि जिसके द्वारा भगवान् तक को अपने वश में आसानी से करके ज्ञानी-सत्पुरुष बन जाया जाता है, उसी भाव को स्त्रियों में फँसा-फँसा कर मात्र तुच्छ क्षणिक वासना तृप्ति हेतु उन स्त्रियों की गुलामी में ही अपना सारा समय व्यर्थ में ही गँवा दिया करता रहता है । स्त्री लाख दुत्कारती रहती है फिर भी कामी-जढ़ी पुरुष नहीं सोचता है । अरे जढ़ी एवं मूढ़ गृहासक्त पुरुषों ! अपने इस अनमोल भावको व्यर्थ में क्यों गँवा रहे हो ? कम से कम अब से भी तो चेत कि अपने भाव को उत्थान परक बनाओ, इसे क्रमशः जीव, आत्मा और परमात्मा को समर्पित करते हुए लोक-परलोक दोनों बना लो । यह सुअवसर मत खोओ । लोक में आत्मा को भाव समर्पित कर आध्यात्मिक महापुरुष तथा परमात्मा (भगवान्) को भाव समर्पित करते हुए शरीर रहते ही मुक्ति और अमरता बोध के साथ ही साथ परमशान्ति और परमानन्द रूप सच्चिदानन्द का बोध प्राप्त करो और शरीर छोड़ने पर आत्मा या ब्रह्म तथा परमात्मा या परमब्रह्म या भगवान् को समर्पित किए हो, तो परम पद या अमर लोक अथवा भगवद् धाम रूप परमधाम प्राप्त करते हुए सायुज्य मुक्ति प्राप्त करो । स्त्रियों के माया जाला में फँस कर अपने अनमोल भाव को व्यर्थ में ही गँवा कर लोक-परलोक मत गँवाओ । थोड़ा भी तो गौर करो इन स्त्रियों से तुझे क्या मिल सकता है ? ये एक मात्र स्वार्थ की भूखी होती हैं । इनके स्वार्थों की पूर्ति करते रहो तो तुम बहुत अच्छे हो । तुम्हारे भावों को काम-वासना, ममता-मोह के द्वारा अपने में जकड़ कर तुम्हारा विनाश करा देंगी । अब से सभी सम्भलो । महापुरुषों को देखो कि क्षणिक साँसारिक सुख का त्याग कर क्या हो  गये ? जितने पर भी अगर न चेत पाओ, तब तो तुम्हारे जैसा अभागा, पतित एवं घृणित और कोई नहीं ।