स्त्रियाँ माया-मोह-ममता-वासना की मूर्ति

स्त्रियाँ माया-मोह-ममता-वासना की मूर्ति
      
      अब इनके लिए प्रायः स्त्री-भोग सुख ही बाकी रह गया है । हालाँकि स्त्री-सुख भोगी प्रायः नब्बे से अन्ठान्वे प्रतिशत लोग ही ऐसे मिलेंगे जो स्त्री-भोग तथा अपने पर पड़ने वाले भार (दायित्त्व) दोनों की तुलना करते हुए, पुरुष हेतु स्त्री तो एक नाहक सिर पर ली हुई विपत्ति का बोझ ही है जो मात्र परम्परा के कारण ही निबह भी रहा है । नहीं तो रात-दिन मर-मर कर यानी अथक परिश्रम करके लाता हूँ, तो परिवार में सदा ही  कुछ न कुछ कमी की समस्या बनी ही रहती है । स्त्री-भोग सुख तो है क्षणिक परन्तु भार (दायित्त्व) की चिन्ता छूटती भी होगी, तो मात्र नींद ही के समय, नहीं तो नींद में भी स्वप्न में उसी के सम्बन्ध मेें प्रायः देखते-सुनते हुए उसमें भी परेशान ही रहते हैं । जहाँ तक पारिवारिक लोगों के तरफ हमारी दृष्टि जा रही है तो यह दिखलायी दे रहा है कि दो से पाँच प्रतिशत लोग भी ऐसे नहीं होंगे, जो स्त्री-पुत्र आदि परिवार को अशान्ति, दुःख एवं अपने पर परम्परागत पड़ा हुआ संकट न मान कर परिवार से बिल्कुल सन्तुष्ट हों । यह धु्रव सत्य एवं मान्य बात है कि स्त्री, पुरुष के  शान्ति और आनन्द तथा श्रम-फल और शरीर की सर्व श्रेष्ठ शोषिका (शोषण करने वाली) होती है परन्तु माया-मोह-ममता-वासना  की साक्षात् मूर्ति होने के कारण पुरुषों को अपने में ऐसा फँसाये, फरमाये, फुसलाये, डरवाये रहती है कि पुरुष के अन्दर उसके खिलाफ यह वृत्ति ही नहीं बनने पाती है  कि स्त्री, पुरुष के धन, धरम, शरीर व शान्ति और आनन्द की सर्व श्रेष्ठ शोषिका तथा पुरुष का एक तरह से खून चूसने वाली डायन-चुड़ैल तथा दूसरे तरफ से खून जलाने वाली साक्षात् चिन्ता की मूर्ति होती है । यदि स्त्री को घोरतम् साक्षात् पाप मूर्ति कहा जाय, तब भी उसके लिए यह कम ही महसूस हो रहा है । यहाँ पर एक बात और बतला दूँ , कि कोई स्त्री कभी भी किसी भी पुरुष की हो नहीं सकती है। वह मात्र स्वार्थ और अपने ख्वाहिशें (चाह) पूरी कर दें, वह स्त्री उसी की होने लगती है, अर्थात् स्त्रियाँ केवल अपने स्वार्थ एवं ख्वाहिशों की ही होती हैं, किसी भी पति की नहीं । यह बात उतनी सत्य है जिसकी कि कोई उपमा नहीं है । इस दुनिया में पापमय प्रायः जितने भी अवगुण हांे मेरे समझ से सभी अवगुणों तथा माया-मोह-ममता-वासना की भी सभी की संयुक्त रूप में साक्षात् मूर्ति ही होती है । यह माया की सीधी मूर्ति होती है जो एक मात्र भगवान्, जो महामाया का भी मालिक (पति) है, से ही लजाती, भयभीत होती है अन्यथा किसी भी अन्य को ये कुछ भी नहीं समझती हैं । एक मात्र भगवान् ही हैं जो इन्हें जैसे चाहते हैं, नचाते रहते हैं । एक मात्र भगवान् पर ही इसका कुछ बश नहीं चल पाता है । हो सकता है कि स्त्रियों को ये बातें बुरी लगें तथा वे सोचें कि हम स्त्रियों से विक्षुब्ध हैं तो ऐसी बात कदापि नहीं है । यहाँ पर जो कुछ भी कहा गया है, सत्यता के लिहाज से, सत्यता को देखते हुए कहा गया है । हो सकता है कि हमारे में यह कमी हो कि स्त्रियों का सही पर्दाफास कर दिया गया है । तो इसमें मेरा कोई दोष क्या हो सकता है । यदि मुझे दोष लगे भी तो मैं सत्य के लिए उसे सहर्ष झेलने को तैयार हूँ । सत्य हेतु दुनिया का कुछ भी, चाहे जितना भी विरोध, संघर्ष, कष्ट आयेगा सबको परम प्रभु की कृपा से सहर्ष सहन करूँगा तथा प्रभु जी से निवेदन एक ही रहेगा कि अपनाये रहे ।
    काम क्रोध लोभादि मद प्रबल मोह के धारि ।
        तिन्ह महँ अति दारुन दुःखद माया रूपी नारी ।।
                                                            अरण्य काण्ड 43 दो0

    अवगुन मूल सूलप्रद प्रमदा सब दुःख खानी ।
        ताते कीन्ह निवारन मुनि मैं यह जीयँ जानि ।।
                                                           अरण्य काण्ड 44 दो0

    विधिहु न नारी हृदय गति जानी ।
        सकल कपट अद्य अवगुण खानी ।।
                                                               अयोध्या काण्ड 261/4